स्टारडम को सोचकर फिल्में नहीं चुनता, कल को पैसा न मिले, फिर भी काम करता रहूंगा
मलयालम सिनेमा के जाने-माने स्टार पृथ्वीराज सुकुमारन ने हिंदी के दर्शकों के दिलों में भी अपनी खास जगह बनाई है। प्रभास के 'सलार' में उन्हें बहुत पसंद किया गया। 'आडुजीवितम: द गोट लाइफ' में उनके किरदार और इसके लिए उनकी मेहनत को देख खूब तालियां बजाई गईं। एक दमदार एक्टर होने के साथ ही वह एक सफल डायरेक्टर भी हैं। उन्होंने बतौर डायरेक्टर अपनी डेब्यू फिल्म 'लूसिफर' (2019) से सफलता के रेकॉर्ड बनाए। अब इसके सीक्वल और सुपरस्टार मोहनलाल स्टारर 'एल 2: एम्पुरान' से उन्होंने मलयालम सिनेमा को अब तक की सबसे बड़ी हिट दी है। हमने कोच्चि में पृथ्वीराज सुकुमारन से खास बातचीत की, सिनेमा और एक्टिंग के प्रति उनके समर्पण को जाना। वह कहते हैं कि एक्टिंग उनका पहला प्यार है। फिर चाहे कल को पैसा मिले या ना मिले, वह एक्टिंग करते रहेंगे। डायरेक्टर वह बस पार्ट टाइम के तौर पर बने हैं।
आप एक्टिंग के महारथी हैं, ऐसे में 'लूसिफर' से डायरेक्शन में कैसे उतरे? एक्टिंग और डायरेक्शन में से ज्यादा संतुष्टि किसमें मिलती है?
मैं मूल रूप से एक्टर हूं। मेरा मेन क्राफ्ट एक्टिंग है। डायरेक्टर मैं पार्ट टाइम हूं। हालांकि, मेरा मानना है कि सिनेमा रूपी आर्ट फॉर्म में सबसे ज्यादा क्रिएटिविटी आप डायरेक्शन में ही कर पाते है, क्योंकि आखिर में डायरेक्टर ही तय करता है कि ऑडियंस क्या देखने वाली है। रचनात्मकता का यह हाई पॉइंट मैं एंजॉय करता हूं। मुझे फिल्म से जुड़े फैसले लेने की इस आजादी में मजा आता है, लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि मैं यह लगातार नहीं कर सकता। मैं एक एक्टर हूं और मुझे सेट पर रोज एक किरदार को निभाने में मजा आता है। डायरेक्शन कभी-कभार के लिए ठीक है, क्योंकि जिस तरह से मैं फिल्म बनाता हूं, मुझे बहुत वक्त लगता है। आर्थिक रूप से भी यह समझदारी भरा फैसला नहीं है, तो डायरेक्शन मैं तब करता हूं जब कहानी मेरे पैशन को जगा दे, जैसा कि लूसिफर के साथ हुआ। चूंकि, मुझे यह कमाल की लेयर्ड कहानी लगी, तो मैंने यह चांस लिया, फिर जो कामयाबी इसे मिली वह इतिहास है।
मलयालम सिनेमा अपने कॉन्टेंट के लिए जाना जाता है, मगर 'एल 2: एम्पुरान' में जैसे भव्य सीन आपने फिल्माए हैं, वो अमूमन तेलुगू-तमिल फिल्मों में देखने को मिलते हैं। क्या यह मलयालम सिनेमा को भी ग्लोबल बनाने की ओर एक कदम है?
ये भव्यता या विजुअल अपील जो कहानी पेपर पर लिखी है, उसका बाय-प्रोडक्ट है। ऐसा नहीं है कि मैंने सोचा कि मुझे एक भव्य फिल्म बनानी है, फिर उस हिसाब से यहां-वहां सीन शूट किया। यह स्केल और विजुअल लैंग्वेज कहानी के आधार पर तय हुई है। यह कहानी वैसी है कि फिल्म को बहुत सारे लोकेशन पर शूट करना इसकी मांग थी। इसकी मांग थी कि यह भव्य दिखे। बस, मेरा तरीका यह है कि मैं रियल लोकेशन में शूट करने में यकीन रखता हूं। मैं कंप्यूटर ग्राफिक्स का कम से कम इस्तेमाल करना पसंद करता हूं। मेरी कोशिश रहती है कि जितनी चीजें हम रियल कर सकें, वो करें।
हालांकि, इसमें ज्यादा मेहनत लगती है, मगर इस फिल्म में भी मैंने ज्यादातर लोकेशन, विजुअल्स और स्टंट्स रियल रखे हैं, क्योंकि उसका प्रभाव अलग होता है। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि हमने सिर्फ फिल्म को ग्रैंड बनाने के लिए ऐसा किया। हमने लूसिफर को शुरू से तीन भागों में बनाने का सोचा था। चूंकि, इस सीक्वल में कहानी अलग-अलग हिस्सों में घटती है। इसका केंद्र भले केरल की राजनीति है, पर इसका फलक राष्ट्रीय और थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए, इसे वहां शूट किया गया है। इसी वजह से तीस फीसदी फिल्म हिंदी में है।
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